मल्होत्रा बर्तन किस घर में नहीं बजते। अच्छा यही है कि झगड़े घर की चारदीवारी में ही सुलझा लिए जाएं... और यार मेहरबानी करके कम से कम मॉर्निंग वॉक के टाइम तो अपनी फैमिली प्रॉब्लम डिस्कस मत किया कर।' अग्रवाल साहब ने सुबह की सैर करते हुए अपने बेटे-बहू का किस्सा छेड़ने पर मल्होत्रा साहब को झिड़कते हुए कहा।
इस झिड़की से मल्होत्रा साहब पर कोई फर्क नहीं पड़ा। अबकी बार वे माथुर साहब की तरफ मुखातिब होते हुए बोले- 'माथुर तू तो जानता ही है कि अपने बेटे के लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया। पहली क्लास से उसकी ट्यूशन लगवाई। जब छोटा था तब अपने कंधे पर बैठा कर उसे चौपाटी पर घुमाने ले जाता था। उसकी हर इच्छा पूरी करता था जो मांगता दिलाता। जब वह अपने हाथों से हवा से भरा गुब्बारा उड़ाता, खिलॉनों से खेलता, झूला झूलता या चॉकलेट आइसक्रीम खाता तब में कितना खुश होता था।
लेकिन आज जब बड़ा हो गया तो हमारी खुशी की उसे कोई परवाह नहीं। मुझे क्या मालूम था कि वह इतना मतलबी निकलेगा।' कहते-कहते मल्होत्रा साहब भावुक हो गए। इसके उलट अग्रवाल साहब ने जैसे उन्हें झपट लिया। तुरंत बोले-'यही तो मैं कह रहा हूं मल्होत्रा तुझे... जब तू अपने बेटे को कंधे पर बैठा कर घुमाता था, खिलौने खरीदकर देता था, झूला झुलाता था उसे चॉकलेट आइसक्रीम खाते देख कर खुशी से उछलता था तो वह खुशी किसकी थी, तेरी या तेरे बेटे की? वह तो तब छोटा था मासूम था, उस वक्त तो खुशी का मतलब तक नहीं जानता था। उसकी खुशी में तू अपनी खुशी नहीं ढूंढता था क्या? उसे खिलखिलाते देख कर तुझे ही तो सुख मिलता था। अपने बेटे के बहाने तू अपनी खुशियां खरीदता था और उसका मोल भी अपने लिए ही चुकाता था। फिर आज अपने बेटे को दोष देकर क्या हासिल करना चाहता है। मतलबी तेरा बेटा नहीं तू खुद है मल्होत्रा जो अपनी भोगी हुई खुशियों का मोल आज अपने बेटे से मांग रहा है।'
इस धाराप्रवाह वचन पर मल्होत्रा साहब और माथुर साहब अग्रवाल साहब का मुंह ताकने लगे। अबकी बार अग्रवाल साहब कुछ नरम पड़ कर बोले 'मल्होत्रा, जो आदमी किसी प्रतिफल के लिए औलाद पैदा करता है, उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं। हम जो भी अपने सुख के लिए करते हैं उसके बदले में शर्तिया सुख की आस करना बेमानी है, निरर्थक प्रयास है। ऐसी अपेक्षा ही मत करो कि पूरी न होने या उपेक्षा पर दुख और निराशा हाथ लगे। ये वो नेकी है जो खुद हम अपने लिए करते हैं जिसका बदला संभव नहीं, इसे दरिया में ही बह जाने दो।' अग्रवाल साहब की बात खत्म होते ही मल्होत्रा साहब के चेहरे पर एक स्मित मुस्कान खिल आई। बोले-'अब क्या रुला के ही मानेगा, जॉगिंग बहुत हो गई चल अब लाफ्टर थैरेपी लेते हैं।'
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